सर्द मौसम में किधर जाऊँ निकल कर घर से ये गली धूप का सरमाया गँवा बैठी है अब के किस कर्ब की गुलशन में बहार आई है हब्स पहलू में लिए बाद-ए-सबा बैठी है अपनी आवाज़ का जादू न जगाऊँ क्यूँकर एक कोयल जो मिरे काँधे पे आ बैठी है ये जो चिड़िया मेरे आँगन में चहकती थी सदा कौन से पेड़ की टहनी पे वो जा बैठी है उस की रोती हुई आँखों से पता चलता है अपने महबूब से हो कर वो जुदा बैठी है है तिरा फ़न तिरे दुख-दर्द पे ग़ालिब 'ज़र्क़ा' बन के महफ़िल में तू तस्वीर-ए-वफ़ा बैठी है