वो जिस ने ढाल दिया बर्फ़ को शरारे में मैं कब से सोच रहा हूँ उसी के बारे में न जाने नींद से कब घर के लोग जागेंगे कि अब तो धूप चली आई है ओसारे में मैं जाग जाग के शब भर उसे तलाशता हूँ लिखा हुआ है मिरा नाम इक सितारे में खिलेगी धूप तो वादी का रंग निखरेगा अभी तो ओस की इक धुँद है नज़ारे में कभी दिमाग़ को ख़ातिर में हम ने लाया नहीं हम अहल-ए-दिल थे हमेशा रहे ख़सारे में 'तलब' ये सोच के लग जाए न ज़बान में ज़ंग किसी से बात मैं करता नहीं इशारे में