ये जुनूँ के मारके इतने नहीं आसान भी सोच लेना इस में जा सकती है तेरी जान भी रौशनी भी चाहिए ताज़ा हवा के साथ साथ खिड़कियाँ रखता हूँ अपने घर में रोशन-दान भी ज़िंदगी में जो तुम्हें ख़ुद से ज़ियादा थे अज़ीज़ उन से मिलने क्या कभी जाते हो क़ब्रिस्तान भी गाँव की पगडंडियाँ पक्की सड़क से जा मिलीं तंग गलियों में बदल कर रह गए मैदान भी पासबान-ए-अक़्ल ने तो मुझ को समझाया बहुत था मगर पहलू में मेरे दिल सा इक नादान भी ख़ुश्क हैं दरिया समुंदर कट गए जंगल तमाम रेत से ख़ाली हुए जाते हैं रेगिस्तान भी मेरे लफ़्ज़ों के उजाले माँद पड़ते जाएँगे धुँद में खो जाएगी इक दिन मिरी पहचान भी ख़ुद को कैसे क़त्ल होने से बचाता में 'तलब' रात मेरे घर में इक क़ातिल था और मेहमान भी