वो जो शिकवे कर रहे थे तल्ख़ी-ए-हालात के आ गए ज़द में सभी बे-मौसमी बरसात के पहले पहले मैं किसी भी बात पर रोता न था फिर मिरी आँखों में खे़मे लग गए सादात के खोली जब उस ख़ूब-रू ने बज़्म में अपनी ज़बाँ फूल खिलने लग गए हर सम्त मौज़ूआत के उस से बढ़ कर कौन कर सकता है ज़ेब-ए-दास्ताँ जिस ने सौ मतलब निकाले हैं तुम्हारी बात के इस्तिख़ारे में जब आया है कि दोनों एक हों फिर मसाइल किस लिए हैं मस्लकों के ज़ात के कह रहा है आज भी आशूर की शब का चराग़ बुझ रहे हैं दिन के अंधेरे में सूरज रात के