वो लहू रोई हैं आँखें कि बताना मुश्किल अब कोई ख़्वाब इन आँखों में सजाना मुश्किल कितनी यादें थीं कि गर्द-ए-रह-ए-अय्याम हुईं कितने चेहरों का हुआ ध्यान में लाना मुश्किल कितने शब-ख़ूँ थे उजालों पे जो मारे न गए कितनी शमएँ थीं हुआ जिन का जलाना मुश्किल कितने दरवाज़े दिलों के थे जो दीवार बने ऐसी दीवार कि दर जिस में बनाना मुश्किल रंग जितने थे बहारों में बहारों से गए इस चमन-ज़ार में अब जी का लगाना मुश्किल वो भी ऐ शहर-ए-निगाराँ था कोई मौसम ख़्वाब बीत जाने पे भी है जिस को भुलाना मुश्किल रक़्स करते हुए काँटों पे चले हम वर्ना हर-क़दम राह में था फूल खिलाना मुश्किल यूँही चढ़ता रहा गर दर्द का दरिया तो 'जमाल' कश्ती-ए-जाँ को किनारे से लगाना मुश्किल