वो लाख पूछे अगर तुझ से ख़ैरियत मेरी न कहना उस से सबा तू ये कैफ़ियत मेरी मैं एक लम्हा हूँ गुज़रे हुए ज़माने का तुम्हें ख़बर ही नहीं क्या है अहमियत मेरी मैं डूबा रहता हूँ फ़िक्र-ए-सुख़न के दरिया में कोई तो देखे ज़रा आ के महवियत मेरी तुम्हारे प्यार ने मशहूर कर दिया वर्ना मैं इक ग़रीब भला क्या है हैसियत मेरी पिए हैं शुक्र अदा करके सब्र के साग़र हुई है साया-ए-साबिर में तर्बियत मेरी मैं अपनी माँ के क़दम चूम कर निकलता हूँ इसी लिए तो चमकती है शख़्सियत मेरी ज़रूर मुझ में छुपा है 'जमील' वो आ कर बनी है रश्क के क़ाबिल जो शख़्सियत मेरी