वो लोग वक़्त को अपना ग़ुलाम करते हैं

वो लोग वक़्त को अपना ग़ुलाम करते हैं
जो हादसों को अदब से सलाम करते हैं

तुम्हारे शहर में तस्वीरें बोलती होंगी
हमारे गाँव में पत्थर कलाम करते हैं

मिरी सुनो तो ये बूढ़ा दरख़्त मत काटो
सुना है इस पे परिंदे क़ियाम करते हैं

हम अपने फ़र्ज़ से ग़ाफ़िल कभी नहीं रहते
वफ़ा की रस्म को दुनिया में आम करते हैं

उन्हीं क़बीलों पे फ़ाक़ों की बारिशें बरसीं
जो अपने खेतों में दिन-रात काम करते हैं

वक़ार-ए-ग़ैरत-ए-क़ौमी को शर्म आती है
वतन में ऐसे भी कुछ लोग काम करते हैं

ये मुस्तफ़ा का करम है 'जमील' पर अपने
तमाम लोग मिरा एहतिराम करते हैं


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