वो मिरी ख़ाक-नवाज़ी को भला क्या समझे ख़ाक हो कर भी न जो ख़ाक का रुत्बा समझे लज़्ज़त-ए-दर्द पे लिक्खे हैं बहुत ने मज़मून दर्द हो जिस को वही दर्द का होना होना समझे मुत्तफ़िक़ वो मिरे जज़्बात से कैसे होगा जो तिलिस्मात-ए-शब-ओ-शब को दुनिया रखे अपने अतराफ़ का कुछ इल्म नहीं है उस को कैसा दरिया है जो कश्ती न किनारा समझे मैं जो खुल जाऊँ तो खुल जाए रुमूज़-ए-हस्ती इतना आसान नहीं मुझ को समझना समझे एक जुगनू की चमक कैसी है 'मुश्ताक़' अहमद नूर महरूम कोई रात का मारा समझे