वो मुझ पे तरस खाएँ ये क़िस्मत ही नहीं है मैं शिकवा करूँ ये मिरी फ़ितरत ही नहीं है अंजान बने बैठे हैं वो बज़्म में ऐसे जैसे कि किसी से उन्हें निस्बत ही नहीं है निकला भी क़फ़स से तो न पहुँचूँगा चमन तक मजबूर हूँ परवाज़ की ताक़त ही नहीं है ऐ काश तिरा क़ुर्ब जो हो जाए मयस्सर फिर मुझ को किसी शय की ज़रूरत ही नहीं है 'फ़य्याज़' फ़क़त अपने मुक़द्दर से गिला है उन से तो मुझे कोई शिकायत ही नहीं है