तेरी फ़ुर्क़त में मुझे नींद कहाँ आती है आँखों आँखों में हर इक रात गुज़र जाती है अब तो इस तौर से ज़ालिम तिरी याद आती है कि मुझे होश से बेगाना बना जाती है मैं तो हर वक़्त तुझे याद किया करता हूँ तुझ को भूले से कभी याद मिरी आती है तेरा हर ज़ुल्म-ओ-सितम मुझ को गवारा है मगर तेरी ग़फ़लत से मिरी जाँ पे बन आती है अब ये आलम है कि बेदर्द ज़माने के साथ अपनी हालत पे मुझे ख़ुद भी हँसी आती है ख़त्म होती है शब-ए-ग़म की कहानी 'फ़य्याज़' शम्अ बुझती है बस अब सुब्ह हुई जाती है