वो पहले अंधे कुएँ में गिराए जाते हैं जो संग शीशे के घर में सजाए जाते हैं अजीब रस्म है यारो तुम्हारी महफ़िल में दिए जलाने से पहले बुझाए जाते हैं हमारी सोच ने करवट ये कैसी बदली है हम अपनी आग में ख़ुद को जलाए जाते हैं बड़ा ही ज़ोर है इस बार मुँह के क़तरों में कि पत्थरों पे भी घाव लगाए जाते हैं अजीब रंग से बरसात अब के आई है कि लोग रेत के घर भी बनाए जाते हैं हमारी राख से उट्ठेगा इक नया इंसाँ इसी ख़याल से ख़ुद को जलाए जाते हैं किसी शजर से कोई साँप गिर के काट न ले हम आज आग सरों पर उठाए जाते हैं हमारा जिस्म है साए में धूप सर पर है बड़े हुनर से वो रौज़न बनाए जाते हैं कुछ ऐसे 'फ़ख़्र' चमन का निज़ाम बदला है बग़ैर पानी के पौदे उगाए जाते हैं