वो प्यास थी कि चलने का यारा भी नहीं था दरिया तो नज़र आता था दरिया भी नहीं था देखा ही नहीं उस ने मिरा दार पे चढ़ना दिलचस्प कुछ ऐसा वो तमाशा भी नहीं था क्या बात है कि क़ाफ़िला मंज़िल पे न पहुँचा रहबर का या रहज़न का तो ख़तरा भी नहीं था इतना भी न हो दश्त में तन्हाई का आलम वाँ रक़्स-कुनाँ कोई बगूला भी नहीं था रस्ते में मुझे रोक के क्यों ख़ैरियत पूछी पहले तो कभी देख के बोला भी नहीं था पिंदार था इस का मुझे ठोकर जो लगाई रस्ता था सहीह आँख से अंधा भी नहीं था एहसास-ए-ख़ुदी जाने में माने रहा 'शाहिद' उस ने तो मुझे बज़्म में टोका भी नहीं था