वो रंग नहीं शौक़ का वो बास नहीं है कुछ है जो तुझे पा के मिरे पास नहीं है इक आइना है और दो हैरत-ज़दा आँखें चेहरा भी कोई दर्द का अक्कास नहीं है या कोई कमी होगी मिरे ग़ुंचा-ए-दिल में या मुझ को तिरी आब-ओ-हवा रास नहीं है जो चाहे वही मौज-ए-हवा लिख के चली जाए कुछ भी हो ये दिल काग़ज़-ओ-क़िर्तास नहीं है पत्थर से गुरेज़ाँ हो तो ये सोच लो पहले दामन में कोई रेज़ा-ए-अल्मास नहीं है सहरा कभी फूलों से नहीं माँगता शबनम प्यासा है मगर कहता है अब प्यास नहीं है कुछ रोज़ मिरे साथ बसर कर के तो देखो फिर शौक़ से कहना मुझे एहसास नहीं है आबाद है और है अदम-आबाद भी दुनिया बस्ती में कोई दूसरा बन-बास नहीं है या कोई 'कफ़ील' आलम-ए-बर्ज़ख़ है ज़मीं पर या साँस फ़क़त सूरत-ए-अन्फ़ास नहीं है