वो सब्र-ओ-सुकूँ वो ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ ऐ दीदा-ए-तर हम खो बैठे शब भर की कमाई हाए ग़ज़ब हंगाम-ए-सहर हम खो बैठे सरमाया-ए-उल्फ़त थे मेरे कुछ ख़ून के क़तरे कुछ आँसू इक वक़्त मगर ऐसा आया वो लाल-ओ-गुहर हम खो बैठे ग़म है कि सुबूत-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा वक़्त आने पे हम देंगे भी तो क्या जज़्बात पे क़ाबू रह न सका अश्कों के गुहर हम खो बैठे इफ़रात-ए-अलम से गर हँसना भूले तो ये कोई बात नहीं हम पर ये ज़माना हँस देगा रोना भी अगर हम खो बैठे हर रहबर-ए-राह-ए-उल्फ़त की तक़लीद का ये अंजाम हुआ जिस राह में मिल जाती मंज़िल वो राहगुज़र हम खो बैठे जज़्बात में जब तक गर्मी थी चिलमन में न लर्ज़िश तक आई अफ़्सोस कि अब पर्दा उट्ठा जब ताब-ए-नज़र हम खो बैठे ऐ 'नूर' शब-ए-फ़ुर्क़त की क़सम महरूमी-ए-क़िस्मत पर अपनी रोते तो हैं पर अब रोने का अंदाज़ मगर हम खो बैठे