मुझे कुछ फ़िक्र ऐ हमदम नहीं है यही ग़म है कि कोई ग़म नहीं है गले लग जा तू ही ऐ ना-मुरादी कि अब अपना कोई हमदम नहीं है क़रीने से सजे हैं जाम-ओ-मीना निज़ाम-ए-मयकदा बरहम नहीं है ज़माने की नज़र है बदली बदली कोई अपना शरीक-ए-ग़म नहीं है हमारे अश्क के क़तरे से बचना कि चिंगारी है ये शबनम नहीं है उठेगा 'नूर' क्यूँकर बार-ए-फ़ुर्क़त ये ग़म दो चार दिन का ग़म नहीं है