वो सँवारेंगे मुझे क्या गुल-ए-ज़ेबाई तक रास आई न जिन्हें मेरी पज़ीराई तक हार का सदमा हुआ है कि है साज़िश कोई ख़ुश तो थी ख़ूब मोहब्बत मिरी पस्पाई तक फिर तो मुमकिन है कई और भी ग़म निकलेंगे बात पहुँचेगी अगर दस्त-ए-मसीहाई तक इश्क़ तो इश्क़ है मत तह में तुम इस की उतरो डूबने वाले भी पहुँचे नहीं गहराई तक इश्क़ की राह में कितनी ही लकीरें खींचो आग पहुँचेगी बहर-हाल तमन्नाई तक अब ख़ुदा जाने गुज़र जाएगी मुझ पर क्या क्या वो मुझे छोड़ गया है मिरी तन्हाई तक तू कहाँ हद्द-ए-सुख़नवर की है ज़द में 'आरिफ़' सिर्फ़ महदूद है तू क़ाफ़िया-पैमाई तक