सवाद-ए-शाम-ए-सफ़र का मलाल कुछ भी नहीं करूँ मैं अर्ज़ भी क्या अर्ज़-ए-हाल कुछ भी नहीं दिल-ए-हज़ीं का बयाँ लाख कीजिए भी तो क्या अगरचे उस को हमारा ख़याल कुछ भी नहीं बला की आरज़ू पाले हुए है दिल ये हनूज़ इस आरज़ू के लिए माह-ओ-साल कुछ भी नहीं निशान-ए-ख़ल्वत-ए-शब दिल पे नक़्श है लेकिन फ़रेब-ए-इश्क़ का हम को मलाल कुछ भी नहीं ख़मोशियाँ भी बहुत कुछ बयान करती हैं बयान-ए-इश्क़ को लफ़्ज़-ओ-ख़याल कुछ भी नहीं सुनेंगे आप भी इक दिन दिल-ए-शिकस्ता से उरूज कुछ भी नहीं है ज़वाल कुछ भी नहीं सवाल ज़ेहन में यूँ तो हज़ारों हैं 'आरिफ़' मगर ये क्या है कि उस से सवाल कुछ भी नहीं