वो शख़्स यूँ निगाह में निगाह डाल कर गया बुझी बुझी सी ज़िंदगी मिरी बहाल कर गया वो सादा-लौह था मगर ग़ज़ब की चाल कर गया नहीं जवाब जिस का मुझ से वो सवाल कर गया मुझे तो अपनी जुस्तुजू उस आस्ताँ पे ले गई वो दुश्मन-ए-वफ़ा न जाने क्या ख़याल कर गया आ गया तो ज़ुल्मत-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ छट गई जो मेहर-ओ-मह न कर सके तिरा जमाल कर गया शिकन शिकन जबीं न कर अगर उमीद-ए-ख़ैर पर फ़क़ीर तेरे दर पे आ गया सवाल कर गया क़दम क़दम पे बुत-कदे रह-ए-हरम में थे मगर मिरा बचाओ ज़िक्र-ए-रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल कर गया