वो सितम करते गए और मैं सितम सहती गई काग़ज़ी कश्ती थी मैं बरसात में बहती गई चाहे कोई माने या माने नहीं मेरी दलील बात सच थी इस लिए मैं चीख़ कर कहती गई शायद उन को शर्म आ जाए तो वो रुस्वा न हों बस इसी उम्मीद पर मैं आज तक रहती गई मेरा रिश्ता था समुंदर से तो मैं रुकती कहाँ मौज-ए-दरिया की तरह बहती गई बहती गई 'नाज़' इस उम्मीद पर शायद कि होश आए उन्हें बे-असर हर बात थी उन पर मगर कहती गई