वो ग़म मिला कि उस को समुंदर बना दिया पत्थर सी आरज़ुओं को गौहर बना दिया ये माजरा तो बसने बसाने की बात है इक दिल था मेरे पास तिरा घर बना दिया फिर कारवाँ के लुटने का शिकवा नहीं करें जब रहज़नों को आप ने रहबर बना दिया ऐसे शफ़ीक़ लोग भी हैं इस ज़मीन पर बस इक निगह की और मुक़द्दर बना दिया उस हम-सफ़र को कैसे भुलाऊँगी उम्र भर जिस ने सफ़र को 'नाज़' हसीं-तर बना दिया