वो उठे तो बहुत घर से अपने मिरे घर में मगर कभी आ न सके वो नसीम-ए-मुराद चले भी तो क्या कि जो ग़ुंचा-ए-दिल को खिला न सके शब-ओ-रोज़ जो रहते थे पेश-ए-नज़र बड़े लुत्फ़ से होती थी जिन में बसर ये ख़बर नहीं जा के रहे वो किधर कि हम उन का निशान भी पा न सके ये मिरे ही न आने का सब है असर कि रक़ीबों से दबते हो आठ पहर मिरे हाल पे चश्म-ए-करम जो रहे कोई आप से आँख मिला न सके किया जज़्बा-ए-इश्क़ ने मेरे असर रही ग़ैरत-ए-हुस्न पे उन की नज़र पस-ए-पर्दा सदा तो सुनाई मुझे मगर अपना जमाल दिखा न सके रहा शोहरा-ए-'इश्क़ का याँ मुझे डर उन्हें अपने पराए का ख़ौफ़-ओ-ख़तर रहीं दिल ही में हसरतें दोनों तरफ़ जो मैं जा न सका तो वो आ न सके वही दिल की तड़प वही दर्द-ए-जिगर हुआ तौबा-ए-'इश्क़ का कुछ न असर तिरी शक्ल जो आँखों में फिरती रही तिरी याद भी दिल से भुला न सके है ख़ुदा की जनाब में सुब्ह-ओ-मसा यही 'अकबर'-ए-ख़स्ता-जिगर की दु'आ कि हमारे सिवा बुत-ए-होश-रुबा कोई सीने से तुझ को लगा न सके