वो ज़ाइक़ा भी 'अजब सिद्क़-ए-नागवार में था ग़ुबार सा कोई मफ़्हूम हर्फ़-ए-ज़ार में था न तू शरीक-ए-‘अदावत था और न प्यार में था तिरा यक़ीन तिजारत में कारोबार में था बुलंदियों से गिरा भी तो ख़ुश-गवार लगा मिरे ज़वाल का उस्लूब आबशार में था किसे दिमाग़ कि तोहमत जुनूँ की सर लेता कि जब ख़ुमार-ए-अना ज़ौक़-ए-इश्तिहार में था किसे सुनाएँ कराहें सिसकते सायों की समा'अतों का ख़ुदा शोर के हिसार में था 'अजीब धुंद है फैली हुई जिधर देखो ठिठक के अपनी जगह हर कोई दयार में था ग़ज़ल के शे'र की मानिंद था सुख़न उस का कमाल-ए-रम्ज़-ए-सुख़न तर्ज़-ए-इख़्तिसार में था है ज़ख़्म ज़ख़्म लहू-आश्ना बदन सारा ये चक्रव्यूह तो यारों के ए'तिबार में था मैं उस के साथ ही हो जाता कैसे मुमकिन था वो लौट आता कहाँ उस के इख़्तियार में था शरीक-ए-वाक़ि'आ करता है अपने क़ारी को 'अजब कमाल-ए-हुनर वाक़ि'आ-निगार में था क़यामतें कई मुझ पर गुज़र गईं 'सरशार' मैं ख़ुश-गुमान करम ही के इंतिज़ार में था