या मुलाक़ात के इम्कान से बाहर हो जा या किसी दिन मिरी फ़ुर्सत को मयस्सर हो जा तुझ को मा'लूम नहीं है मिरी ख़्वाहिश क्या है मुझ पे एहसान न कर और सुबुक-सर हो जा इर्तिक़ा क्या तिरी क़िस्मत में नहीं लिक्खा है अब तमन्ना से गुज़र मेरा मुक़द्दर हो जा मैं जहाँ पाँव रखूँ वाँ से बगूला उट्ठे रेग-ए-सहरा मिरी वहशत के बराबर हो जा ऐ मिरे हर्फ़-ए-सुख़न तू मुझे हैराँ कर दे तो किसी दिन मिरी उम्मीद से बढ़ कर हो जा