या-रब कभी क़ुबूल मिरी ये दुआ भी हो तू ने बदन दिया है बदन पर क़बा भी हो बैठे हैं दिल में ले के बुलंदी की आरज़ू लेकिन हमारे ख़ून में पैदा हुमा भी हो तीरा-शबी का राज़ समझ पाएगा वही जो आफ़्ताब हो के कहीं पर बुझा भी हो मग़रूरियत की हद को कहीं वो न जा लगे हर आदमी में हस्ब-ए-ज़रूरत अना भी हो सहरा में रक़्स करने से कुछ फ़ाएदा नहीं ऐ अब्र आ इधर कि ये जंगल हरा भी हो