याद आते गए भुलाने से दर्द बढ़ता गया दबाने से राज़ इफ़्शा हुआ छुपाने से ख़ामुशी कम न थी फ़साने से मैं ने मिन्नत भी की मगर तुम तो बाज़ आए न दिल दुखाने से कुछ मुक़द्दर ही ना-रसा पाया मुझ को शिकवा नहीं ज़माने से मेरी क़िस्मत में जो हो साफ़ कहो काम चलता नहीं बहाने से कोई दर्द-आश्ना नहीं मिलता क्या वफ़ा उठ गई ज़माने से उन को पा कर भी कुछ नहीं पाया बाज़ आए हम ऐसे पाने से हम को मिटना था उन पे ऐ 'साहिर' मिट गए हम किसी बहाने से