याद-ए-जानाँ सताती रही उम्र भर ख़ूँ के आँसू रुलाती रही उम्र भर एक आवाज़ आती रही उम्र भर दिल में जादू जगाती रही उम्र भर इक न इक ग़म से पड़ता रहा वास्ता ज़िंदगी गुल खिलाती रही उम्र भर सू-ए-सहरा क़दम मेरे उठते रहे जाने क्या शय बुलाती रही उम्र भर आप से मिल गई मुझ को ऐसी ख़ुशी ज़िंदगी मुस्कुराती रही उम्र भर मैं कि था एक मुफ़्लिस के घर का दिया आतिश-ए-ग़म जलाती रही उम्र भर ख़ूब थी हुस्न-ए-दिलकश की जल्वागरी 'औज' दिल को लुभाती रही उम्र भर