याद-ए-अहद-ए-गुल में बाक़ी हैं अभी रानाइयाँ तैरती हैं ग़म की गहराई में कुछ परछाइयाँ देर तक तन्हा खड़ा देखा किया उस मोड़ पर जा चुकी थीं जिस तरफ़ बजती हुई शहनाइयाँ सख़्ती-ए-दौर-ए-ख़िज़ाँ को चार दिन बीते नहीं फिर वही बुलबुल के नग़्मे फिर चमन-आराईयाँ ख़ुद से भी ख़ल्वत में मिलने को तरस जाता हूँ मैं लिपटी रहती हैं हमेशा यूँ मिरी परछाइयाँ 'नूर' बे-पायाँ ख़ला में डूबती है जब नज़र और बढ़ जाती हैं मेरी रात की तन्हाइयाँ