तपिश हो सोज़-ए-ग़म हो इश्क़ में लेकिन फ़ुग़ाँ क्यों हो लगी हो आग सीने में मगर उस में धुआँ क्यों हो लुटा दी अपने हाथों जब मताअ'-ए-सीम-ओ-ज़र मैं ने तो फिर अब संग-रेज़ों पर ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ क्यों हो निगाह-ए-अव्वलीं तो इंतिहाई कैफ़-परवर थी वही दिल में उतर कर उम्र भर को नीश-ए-जाँ क्यों हो अता-ए-ग़म में भी तफ़रीक़ की तालिब है ख़ुद्दारी जो सब की दास्तान-ए-ग़म हो मेरी दास्ताँ क्यों हो न जीते जी शिफ़ा बख़्शी न जीने की दुआ माँगी कोई फिर 'नूर' मय्यत पर हमारी नौहा-ख़्वाँ क्यों हो