यार कहता है तजल्ली-ए-लक़ा थी मैं न था तूर-ए-सीना पर वही जल्वा-नुमा थी मैं न था गुम्बद-ए-अफ़्लाक पर जिस का हुआ अक्सर गुज़र वो दिल-ए-बीमार-ए-ग़म की इक दुआ थी मैं न था हर तरफ़ थी आलम-ए-इम्काँ में जो फैली हुई मेरे असरार-ए-हक़ीक़त की ज़िया थी मैं न था मिस्ल-ए-बू-ए-गुल तिरे कूचे में था जिस का गुज़र ऐ सनम वो मेरी जान-ए-मुब्तला थी मैं न था बोस्ताँ में तालिब-ए-दीदार थी जो आप की वो गुल-ए-नर्गिस की चश्म-ए-बा-ज़िया थी मैं न था बा'द-ए-मुर्दन क़ब्र में मुझ को सुला कर ये कहा दर्द था बेताबियाँ थीं और क़ज़ा थी मैं न था इक झलक दिखला के अपनी किस अदा से कह गया जिस को देखा वो भी शान-ए-किब्रिया थी मैं न था जिस ने चूमा वक़्त-ए-पामाली क़ुदूम-ए-नाज़ को ख़ून-ए-दिल बा-शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना थी मैं न था दरगुज़र कर आइने से आप ने मोड़ा है मुँह इस में मेरी हसरत-ए-हैरत-फ़ज़ा थी मैं न था ज़ारी-ओ-शेवन हमारी कब सुनी हैं आप ने बोस्ताँ में बुलबुल-ए-नग़्मा-सरा थी मैं न था उड़ के जो पहुँची सबा के साथ गलियों में तिरी मुश्त-ए-ख़ाक-ए-कुश्ता-ए-तेग़-ए-अदा थी मैं न था देख कर उन को जो मैं फ़र्त-ए-मसर्रत से मरा वो लगे कहने कि ये उस की क़ज़ा थी मैं न था था मैं तस्वीर-ए-ख़याली हस्ती-ए-मौहूम में वो भी शान-ए-इश्क़-ए-शाह-ए-दो-सरा थी मैं न था ऐ 'जमीला' बोसतान-ए-इश्क़ में वक़्त-ए-सहर निकहत-ए-गुल सी जो पहुँची वो सबा थी मैं न था