यूँ उस पे मिरी अर्ज़-ए-तमन्ना का असर था जैसे कोई सूरज की तपिश में गुल-ए-तर था उठती थीं दरीचों पे हमारी भी निगाहें अपना भी कभी शहर-ए-निगाराँ में गुज़र था हम जिस के तग़ाफ़ुल की शिकायत को गए थे आँख उस ने उठाई तो जहाँ ज़ेर-ओ-ज़बर था शानों पे कभी थे तिरे भीगे हुए रुख़्सार आँखों पे कभी मेरी तरह दामन-ए-तर था ख़ुशबू से मोअत्तर है अभी तक वो गुज़रगाह सदियों से यहाँ जैसे बहारों का नगर था है उन के सरापा की तरह ख़ुश-क़द ओ ख़ुश-रंग वो सर्व का पौदा जो सर-ए-राहगुज़र था क़तरे की तराई में थे तूफ़ाँ के नशेमन ज़र्रे के अहाते में बगूलों का भँवर था इस आदम-ए-ख़ाकी पे सितारों की नज़र थी इस ख़ाक पे कुछ जलवा-ए-यज़्दाँ का असर था मैं रोया तो हँसने की सदा आई कई यार वो जान-ए-तमन्ना पस-ए-दीवार-ए-नज़र था 'दानिश' था इकहरा मिरा पैराहन-ए-हस्ती बे-पर्दा ज़माने पे मिरा ऐब-ओ-हुनर था