यादों में रंग भर रहा हूँ ज़ख़्मों को गुलाब कर रहा हूँ हर साँस एक अन-सुनी सी आहट मैं जाने किस पे मर रहा हूँ दुनियाएँ वजूद पा रही हैं रेज़ा रेज़ा बिखर रहा हूँ इक लम्हा-ए-गुमशुदा की ख़ातिर सदियों का हिसाब कर रहा हूँ मक़्सूद-ए-सफ़र है कुछ तो ऐसा शो'लों से जो गुज़र रहा हूँ है एक जुनून-ए-ख़ुद-शनासी अक्सर अपने ही सर रहा हूँ तूफ़ान गुज़र चुका है कब का अब दरिया सा उतर रहा हूँ रिश्ते मज़बूत हो रहे हैं पेशानियों पर उभर रहा हूँ था फ़ख़्र बहुत फ़लक-रसी पर ख़ुद अपने पर अब कतर रहा हूँ