यही हक़ीर सी दुनिया जो ख़ाक-दान लगे बुलंदियों से जो देखो तो आसमान लगे वो ज़िंदगी की कड़ी धूप सह नहीं सकता है एक अब्र का टुकड़ा भी साएबान लगे उसे भी जीने का हक़ है उसे भी जीने दो जो बे-ज़बान नहीं और बे-ज़बान लगे बताओ नज़्र करूँ मैं किसे मता-ए-हयात मैं जिस को प्यार करूँ वो भी बद-गुमान लगे उसी को सौंप दे सरमाया-ए-हुनर अपना मता-ए-लौह-ओ-क़लम का जो पासबान लगे रवाँ-दवाँ था जहाँ आबशार-ए-नग़्मा-ओ-नूर वो शहर-ए-ऐश-ओ-तरब कितना बे-अमान लगे ये अपने ज़ौक़-ए-तजस्सुस की बात है वर्ना वो बे-सुराग़ लगे है न बे-निशान लगे वो बात नोक-ए-क़लम तक ज़रूर आएगी जो हर्फ़ हर्फ़ हक़ीक़त की तर्जुमान लगे ख़मोशियों में भी सरगोशियों के हैं अम्बार तिरी निगाह मिरे ग़म की दास्तान लगे हज़ार साल मसर्रत की ज़िंदगी भी 'असर' न एक लम्हा न इक पल न एक आन लगे