यही कहेंगे सभी घर को घर समझते हैं ये झूट वो है जिसे बाम-ओ-दर समझते हैं बसा बसाया कोई इस तरफ़ तो आता नहीं जो ला-मकाँ हैं वही दिल को घर समझते हैं मैं ऐसे दश्त-नवर्दों को साथ रखता हूँ किताब पढ़ के जो अपना सफ़र समझते हैं ये आसमान उन्हीं सर-फिरों से सर होगा तसव्वुरात को जो बाल-ओ-पर समझते हैं जो ना-समझ हैं उठाते हैं ज़िंदगी के मज़े समझने वाले तो बस 'उम्र-भर समझते हैं शजर शजर से मैं लेता हूँ मशवरा हर गाम वो चल न पाएँ मगर रहगुज़र समझते हैं 'अमित-बजाज' कोई डर को जीत पाया क्या वो कामयाब हैं जो अपना डर समझते हैं