यही कहती लैली-ए-सोख़्ता-जाँ नहीं खाती अदब से ख़ुदा की क़सम ग़म-ए-क़ैस सिवा मुझे ग़म नहीं कुछ उसी कुश्त-ए-नाज़-ओ-अदा की क़सम कभी कहता था क़ैस ग़ज़ालों से जा कहो नाक़ा याँ से किधर को गया कभी कहता था तू ही बताए सबा तुझे लैला की ज़ुल्फ़-ए-दोता की क़सम तिरे कुश्ता-ए-ग़म का है हाल बतर यही कहियो जो जाना हो तेरा उधर तुझे क़ासिद-ए-मौज-ए-नसीम-ए-सहर मिरी हिज्र की शब की बुका की क़सम आई 'हवस' मुझे फूलों की बू कभी बैठा न जा के मैं बर-लब-ए-जू मिरी तंगी-ए-दिल तो गई न कभू मुझे बाग़-ए-जहाँ के फ़ज़ा की क़सम