यहीं गिर्द-ओ-नवाह में गूँजती है मिरे क़ुर्ब-ओ-जवार से फूटती है कोई दूर-दराज़ की चाप नहीं जो सुकूत के पार से फूटती है ये जहान-ए-मजाज़ है अक्स-नुमा किसी और जहाँ की हक़ीक़तों का यहाँ चाँद उभरता है पानियों से धनक आइना-ज़ार से फूटती है वहाँ सारी शगुफ़्त तज़ाद से है जहाँ हैरतें ओढ़ के घूमता हूँ कहीं फूल चटान से फूटता है कहीं आग चिनार से फूटती है न शुमाल-ओ-जुनूब में देखता हूँ न तुलू-ओ-ग़ुरूब में देखता हूँ मैं वो बर्क़ क़ुलूब में देखता हूँ जो तजल्ली-ए-यार से फूटती है तिरे अर्ज़-ओ-समा में जो गर्मियाँ हैं वो उसी की नुफ़ूज़-पज़ीरियाँ हैं ये जो मौज-ए-हरारत उमडती हुई मिरे दिल के बुख़ार से फूटती है लिए बैठे हैं आइना तीरगी में अभी चश्म-ब-राह हैं देखते हैं पस-ओ-पेश से फूटती है वो किरन कि यमीन-ओ-यसार से फूटती है कहीं वादी-ए-नूर में रूह के साज़ पे हमदिया गीत अलापता हूँ कोई झरने सी एक नशातिया धुन मिरी सुब्ह के तार से फूटती है ये तो अक्स हज़ार शुआ'ओं के हैं जो कि एक ही अक्स में ढल गए हैं कई शम्स-ओ-नुजूम की रौशनी है जो हमारे ग़ुबार से फूटती है