क़बाहत ऐसी भी क्या है नज़र न आने में कि दिन गुज़ार दें लोगों से मुँह छुपाने में खड़े हुए थे कहीं वक़्त के किनारे पर फिसल के जा गिरे इक और ही ज़माने में तो इतने फ़ालतू हो जाते हैं ये ख़्वाब इक दिन कि फेंक देते हैं उन को कबाड़-ख़ाने में ये एक उम्र में जाना यक़ीनी कुछ भी नहीं बक़ाया उम्र कटी फिर यक़ीं दिलाने में निकल न पाते ग़मों के ग़िज़ाई जाल से हम जो ख़ुद-कफ़ील न होते फ़रेब खाने में मशीन देखती है सोचती है बोलती है हमारा आप का अब काम क्या ज़माने में दबी हुई थी कहीं ला-शुऊ'र में 'शाहिद' लगा है वक़्त उदासी को बाहर आने में