यक़ीन मर गया मिरा गुमान भी नहीं बचा कहीं किसी ख़याल का निशान भी नहीं बचा ख़मोशियाँ तमाम ग़र्क़ हो गईं ख़लाओं में वो ज़लज़ला था साहिबो बयान भी नहीं बचा नदी के सर पे जैसे इंतिक़ाम सा सवार था कि बाँध फ़स्ल पुल बहे मकान भी नहीं बचा हुजूम से निकल के बच गया उधर वो आदमी इधर हुजूम के मैं दरमियान भी नहीं बचा ज़मीं दरक गई सुलगती बस्तियों की आग से ग़ुबार वो उठा कि आसमान भी नहीं बचा बिखरती-टूटती फ़सील नीव को हिला गई कि दाग़ ज़ात पर था ख़ानदान भी नहीं बचा तमाम मुश्किलों को हम ने नींद में दबा दिया खुला ये फिर कि कोई इम्तिहान भी नहीं बचा