यक़ीं से फूटती है या गुमाँ से आती है ये दिल में रौशनी आख़िर कहाँ से आती है मकाँ जले हैं मकीनों के क़त्ल-ए-आम के ब'अद महक लहू की उमँडते धुआँ से आती है पयाम लाती है औज-ए-फ़िराक़ का मुझ तक हवा जो मिल के मिरे मेहरबाँ से आती है क़रार देती है वो आईने को मंज़िल-ए-दीद जो गर्द उड़ के अभी कारवाँ से आती है ज़िया-ए-रोज़-ए-अज़ल ज़ुल्मत-ए-शबान-ए-गिराँ फ़ज़ा है जो भी इसी आसमाँ से आती है हमीं न जा सके सज्दे में वस्ल पाने को सदा तो अब भी 'तराज़' आस्ताँ से आती है