यकता-ए-रोज़गार नहीं फ़िक्र-ओ-फ़न में हम ये कम नहीं कि बैठे हैं अहल-ए-सुख़न में हम तज़ईन-ए-काएनात ही है मक़्सद-ए-हयात शबनम जो हैं चमन में तो अंजुम गगन में हम ग़ुर्बत ने की है इस तरह तज़ईन-ए-ज़िंदगी लगते हैं शाहकार हर इक पैरहन में हम तौबा न याद आई गुनाहों की भीड़ में अब मुँह छुपाए जाते हैं देखो कफ़न में हम आसूदा-ए-हयात रहे जिस की गोद में दफ़नाए जाएँगे इसी ख़ाक-ए-वतन में हम तस्ख़ीर-ए-काएनात में मसरूफ़ है जहाँ उलझे हुए हैं आज भी रस्म-ए-कुहन में हम खाते रहेंगे यूँही ज़माने की ठोकरें आवारा-ए-निफ़ाक़ हैं जब तक वतन में हम तस्लीम ख़ुश-लिबासी में गुज़री है ज़िंदगी कितने हसीन लगते हैं लेकिन कफ़न में हम करती है रश्क गर्दिश-ए-दौराँ भी आज तक इस तरह शादमाँ रहे रंज-ओ-मेहन में हम बे-साख़्ता छलक पड़ी है चश्म-ए-इल्तिफ़ात यूँ संगसार-ए-ग़म रहे हैं अंजुमन में हम जौर-ओ-सितम को हद से गुज़र जाने दो 'तरब' हक़ का निसाब लाएँगे अपने वतन में हम