पंखुड़ी लब हैं तो आरिज़ हैं गुल-ए-तर की तरह मस्त आँखें हैं छलकते हुए साग़र की तरह चाँदनी सहन-ए-चमन मौज-ए-हवा कैफ़-ए-बहार तू नहीं है तो हर इक शय है सितमगर की तरह अश्क-ए-ग़म को मिरे देखे न हिक़ारत से कोई क़तरा क़तरा है हक़ीक़त में समुंदर की तरह क्या मिटाएगा कोई सफ़्हा-ए-हस्ती से हमें हम ज़माने में नहीं हर्फ़-ए-मुकर्रर की तरह देख कर आज की तहज़ीब को माइल-ब-ज़वाल फ़िक्र ख़ामोश है संजीदा सुख़नवर की तरह तीरा-बख़्ती है ये अपनी कि ज़माने का करम अपने ही घर में जो हम रहते हैं बे-घर की तरह कौन बतलाए किसे राह-रवी के आदाब अब तो रहज़न भी नज़र आते हैं रहबर की तरह हो गई वो भी किसी शोख़ की ज़ुल्फ़ों की असीर निकहत-ए-गुल है परेशाँ दिल-ए-मुज़्तर की तरह सज्दा-ए-शुक्र-ए-ख़ुदा हम से अदा क्या हो 'तरब' दिल तो दीवाना-ए-असनाम है आज़र की तरह