यारब दिल-ओ-नज़र पे मुसल्लत कभी न हो वो बे-ख़ुदी कि जिस में शुऊ'र-ए-ख़ुदी न हो इतना न दूर जाओ हद-ए-इख़्तिलाफ़ से मुमकिन है फिर वहाँ से कभी वापसी न हो दिल में ख़ुलूस हो तो हो इक मुस्तक़िल ख़ुलूस वो क्या ख़ुलूस है जो कभी हो कभी न हो तर्क-ए-तअल्लुक़ात की इक शर्त ये भी थी दिल टूट जाए और कोई आवाज़ भी न हो जी चाहता है फूलों से कुछ गुफ़्तुगू करूँ फिर सोचता हूँ बाद-ए-सबा देखती न हो 'गौहर' दिल-ओ-निगाह में इक फ़स्ल तो रहे लेकिन दिल-ओ-नज़र का तसादुम कभी न हो