ये अक्स आप ही बनते हैं हम से मिलते हैं कि नाख़ुनों के बग़ैर अपने ज़ख़्म छिलते हैं ख़बर मिली है कि तू ख़्वाब देखती है अभी ख़बर मिली है तिरी सम्त फूल खिलते हैं हमें ये वक़्त की बख़िया-गरी पसंद नहीं अगरचे वक़्त के हाथों से ज़ख़्म सिलते हैं हमारी उम्र से बढ़ कर ये बोझ डाला गया सो हम बड़ों से बुज़ुर्गों की तरह मिलते हैं किसी को ख़्वाब में अक्सर पुकारा जाता है 'अता' इसी लिए सोते में होंट हिलते हैं