ये और बात है बद-नामियों के घर में रहा यही बहुत है कि मैं आप की नज़र में रहा न रास्तों का पता था न मंज़िलें मालूम सफ़र तमाम हुआ और मैं सफ़र में रहा किसी की ज़ुल्फ़ का साया कहाँ नसीब हुआ तमाम उम्र सुलगती सी दोपहर में रहा हज़ारों क़ाफ़िले मंज़िल पे जा के लौट आए मैं संग-ए-मील की मानिंद रहगुज़र में रहा वो जिस ने रख दिए दुश्मन के सामने हथियार अमीर-ए-फ़ौज की फ़िहरिस्त-ए-मो'तबर में रहा ख़ुद अपने जिस्म की परछाइयों में सो जाओ ख़िज़ाँ का दौर है साया कहाँ शजर में रहा क़दम क़दम पे लगी ठेस आबगीनों को ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब सीम-ओ-ज़र में रहा