ये बात अलग दिल को तिरी याद ने बाँधा इस सैद को वर्ना कहाँ सय्याद ने बाँधा कूचा ये कोई और ही आबाद करेगा सामान जो अब के दिल-ए-बर्बाद ने बाँधा इस शहर को अब छोड़ के क्या जाऊँ कि मुझ को रोका है किसी आह ने फ़रियाद ने बाँधा जो उस की तलब है वही अब मेरी तलब है किस सेहर से मुझ को मिरे हम-ज़ाद ने बाँधा हमवार हुई राह न रस्ता ही खुला है बाज़ू से तो ता'वीज़ भी अफ़राद ने बाँधा इक कोह-ए-गिराँ तोड़ दिया पर नहीं तोड़ा पैमान-ए-वफ़ा जब किसी फ़रहाद ने बाँधा शागिर्द के अब शे'र से होता है बरामद मज़मून बहुत पहले जो उस्ताद ने बाँधा 'फ़ारूक़' नज़र हो गई मरकूज़ उसी पर क्या ख़ूब अदाओं से परी-ज़ाद ने बाँधा