ये बात मुन्कशिफ़ हुई चराग़ के बग़ैर भी मैं ढूँड लूँगा हर ख़ुशी चराग़ के बग़ैर भी हुआ था जिस जगह कभी विसाल-ए-यार दोस्तो है उस जगह पे रौशनी चराग़ के बग़ैर भी लिक्खी गई हैं जिस के साथ ज़िंदगी की मंज़िलें वो आ मिलेगा आदमी चराग़ के बग़ैर भी मसर्रतों के क़ाफ़िले लुटा रही है फिर मुझे तिरी ये ख़ुद-सुपुर्दगी चराग़ के बग़ैर भी मैं तज़्किरा करूँ तो क्या करूँ जमाल-ए-यार का दमक रही थी दिलकशी चराग़ के बग़ैर भी तुम्हारी एक याद बे-शुमार हसरतों के रंग निगाह में सजा गई चराग़ के बग़ैर भी गिला किसी से क्यूँ करूँ गुज़र ही जाएगी 'ख़याल' ये मुख़्तसर सी ज़िंदगी चराग़ के बग़ैर भी