मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं लिखा है ये ख़त में कि हम आ रहे हैं ठहर जा ज़रा और ऐ दर्द-ए-फ़ुर्क़त हमारे तसव्वुर में वो आ रहे हैं ग़म-ए-आक़िबत है न फ़िक्र-ए-ज़माना पिए जा रहे हैं जिए जा रहे हैं नहीं शिकवा-ए-तिश्नगी मय-कशों को वो आँखों से मय-ख़ाने बरसा रहे हैं वो रश्क-ए-बहार आने वाला है 'अख़्तर' कँवल हसरतों के खिले जा रहे हैं