ये बद-क़िमाश जो अहल-ए-अता बने हुए हैं बशर तो बन नहीं सकते ख़ुदा बने हुए हैं मैं जानता हूँ कुछ ऐसे अज़ीम लोगों को जो ज़ुल्म सह के सरापा दुआ बने हुए हैं वो मुझ से हाथ छुड़ा ले तो कुछ अजब भी नहीं उसे ख़बर है कि हालात क्या बने हुए हैं लुढ़कता जाऊँ कहाँ तक मैं साथ साथ उन के मिरे शरीक-ए-सफ़र तो हवा बने हुए हैं तू ख़ल्वतों में उन्हें देख ले तो डर जाए ये जितने लोग यहाँ पारसा बने हुए हैं कभी-कभार तो ऐसा गुमाँ गुज़रता है हमारे हाथ के अर्ज़-ओ-समा बने हुए हैं हमीं से हो के पहुँचना है तुम को मंज़िल तक गुज़र भी जाना कि हम रास्ता बने हुए हैं हज़ारों लोग बिछड़ते रहे हैं मिल मिल कर सो ज़िंदगी में बहुत से ख़ला बने हुए हैं किसी से मिल के बने थे जो ज़र्द लम्हों में वो सब्ज़-ख़्वाब मिरा आसरा बने हुए हैं