ये बर्फ़-पोश मनाज़िर भी शोला-ख़ू निकले ये कब हुआ कि धरो पाँव तो लहू निकले वो जब भी आते हैं सूरज के रथ पे आते हैं ये इस लिए कि किसी की न आरज़ू निकले हुजूम इतना हो जिस का न हो शुमार कि जब मिरी किताब का परचम बना के तू निकले झपकते देखीं किसी ने न मुंतज़िर आँखें ये चाक वो हैं जो बेगाना-ए-रफ़ू निकले नक़ाब ताबिश-ए-जल्वा से आब आब हुआ कि जैसे धूप में कोई किनार-ए-जू निकले हुजूम-ए-बादा-कशाँ में भी हम ने देखा है बहुत से लोग हमेशा ही बा-वज़ू निकले हलाक होता है कब कोई दूसरों के लिए किया जो ग़ौर तो हम अपने ही अदू निकले ये मेरे जज़्ब-ए-निहाँ का है मोजज़ा शायद कि दिल में झाँक के देखूँ तो तू ही तू निकले ये है बहार कि चर्बा बहार का 'ख़ावर' कि धुँद ओढ़ के उश्शाक़-ओ-ख़ूब-रू निकले