ये बे-नवाई हमारी सौदा-ए-सर है घर में बसा दिया है मकान ख़ाली है लेकिन इस को निगार-ख़ाना बना दिया है तमाम उम्र-ए-अज़ीज़ अपनी इसी तरह से गँवाई हम ने कभी जो सोए तो ख़्वाब देखा किसी ने हम को जगा दिया है न कुछ रहा है कि हम ही रखते न कुछ बचा है कि तुम को देते मता-ए-दिल थी लुटा के आए जो क़र्ज़-ए-जाँ था चुका दिया है ये शान देखो क़लंदरों की है जिस पे दार-ओ-मदार-ए-हस्ती वो आशियाँ फूँक कर हर इक शाख़ पर नशेमन बना दिया है ये ज़िंदगी की सितम-ज़रीफ़ी नहीं तो फिर और क्या है 'आज़र' वो जिन की ख़ातिर भटक रहे हैं उन्ही ने हम को भुला दिया है