ये बिछड़ना तो मिरी जान बिछड़ना न हुआ मिल के रोए भी नहीं हश्र भी बरपा न हुआ एक वहशत सी रही तुझ से बिछड़ कर दिल में लब-ए-साकित से मगर कोई भी शिकवा न हुआ तुझ को पा कर भी मुकम्मल नहीं हो पाया कभी और मैं तुझ से बिछड़ के भी अधूरा न हुआ वहशत-ए-इश्क़ ने मसरूफ़ रखा तुझ में सदा और तुझ को कभी मुझ पर ही भरोसा न हुआ जाइए हम भी ये तस्लीम किए लेते हैं हम ने देखा था कोई ख़्वाब जो पूरा न हुआ